हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,इस्लामी क्रांति के पूर्व वरिष्ठ नेता हज़रत इमाम ख़ुमैनी प्रतिरोध और डट जाने की विशेषता, ये वो चीज़ है जिसने इमाम ख़ुमैनी को एक नज़रिए के रूप में, एक विचारधारा की शक्ल में, एक सोच के तौर पर और एक रास्ते की हैसियत से पहचनवाया।
मैं जब इमाम ख़ुमैनी की इस विशेषता के बारे में सोचता हूँ और क़ुरआने मजीद की आयतों पर नज़र डालता हूँ तो ऐसा लगता है कि उन्होंने वास्तव में अपने इसी प्रतिरोध के माध्यम से क़ुरआने मजीद की बहुत सी आयतों की अमली तस्वीर पेश की। मिसाल के तौर पर पवित्र क़ुरआन की आयत कहती है: तो आप (उन्हें सत्य धर्म की ओर) बुलाइये और जैसा कि आपको आदेश दिया गया है मज़बूती से डट जाइये और उनकी इच्छाओं का पालन न कीजिए। (सूरए शूरा, आयत 15) धमकी, लालच और फ़रेब की कोशिशों का उन पर कभी कोई असर नहीं हुआ। ऐसा नहीं था कि इमाम ख़ुमैनी को धमकी नहीं दी गई, लालच नहीं दिया गया या फ़रेब देने की कोशिश नहीं की गई, क्यों नहीं, ये सब हुआ लेकिन इमाम ख़ुमैनी पर इन कोशिशों का रत्ती भर भी असर नहीं हुआ, उनके प्रतिरोध पर इसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा।
प्रतिरोध का मतलब क्या है? प्रतिरोध का मतलब ये है कि इंसान ने किसी रास्ते को चुना है और उसे वह सही रास्ता और हक़ का रास्ता मानता है। उस रास्ते पर वो अपना सफ़र शुरू कर दे और रास्ते की रुकावटें उसे आगे बढ़ने और सफ़र जारी रखने से रोक न पाएं। प्रतिरोध का मतलब यह है। मिसाल के तौर पर कभी किसी रास्ते में इंसान के सामने सैलाब आ जाता है, कोई गड्ढा आ जाता है, या वो पहाड़ी इलाक़े में किसी चोटी पर पहुंचने की कोशिश कर रहा है और रास्ते में कोई बड़ी चट्टान आ जाती है। कुछ लोग ऐसा करते हैं कि जब चट्टान सामने आ जाए या कोई और बड़ी रुकावट आ जाए, कोई लुटेरा मौजूद हो, कोई भेड़िया मौजूद हो तो वहीं से क़दम वापस खींच लेते हैं, सफ़र का इरादा छोड़ देते हैं।
मगर कुछ लोग हैं जो ऐसा नहीं करते। वो देखते हैं कि कहीं घूम कर उस चट्टान से आगे बढ़ने का रास्ता है या नहीं? उस रुकावट को पार करने का क्या तरीक़ा है? वो उस रास्ते को तलाश कर लेते हैं, उस रुकावट को दूर कर देते हैं या फिर होशियारी से काम लेते हुए घुमावदार रास्ते पर चल कर उस रुकावट को पार कर लेते हैं। प्रतिरोध का मतलब यही है। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ऐसे ही थे। उन्होंने एक रास्ता चुन लिया था और उसी पर क़दम बढ़ा रहे थे। ये रास्ता क्या था? इमाम ख़ुमैनी की बात क्या थी जिस पर वे डटे हुए थे और प्रतिरोध कर रहे थे? उनका मक़सद था, अल्लाह के दीन का राज, अल्लाह के दीन की सत्ता, मुसलमानों पर और जनता की आम ज़िंदगी पर अल्लाह के निर्देशों का शासन। ये उनका रुजहान था।
ये भी ज़ाहिर है कि दुनिया की ज़ालिम ताक़तें इस रुजहान और इस तरीक़े की विरोधी हैं। दुनिया की साम्राज्यवादी व्यवस्था, ज़ुल्म पर आधारित है। जिस वक़्त इमाम ख़ुमैनी ने इस आंदोलन को शुरू किया, उस वक़्त दो साल से पश्चिमी ताक़तें दुनिया के हर स्थान पर, एशिया में, अफ़्रीक़ा में, विभिन्न देशों में राष्ट्रों को अपने ज़बरदस्त अत्याचार का निशाना बनाए हुए थीं। अंग्रेज़ों ने भारत और इस इलाक़े के दूसरे देशों में, फ़्रान्सीसियों ने अफ़्रीक़ा में और अन्य देशों में, कुछ अन्य यूरोपीय देशों ने दूसरे अलग-अलग देशों में खुल कर अत्याचार का बाज़ार गर्म कर रखा था। ज़ाहिर है इस नारे से उन देशों का क्रोधित होना स्वाभाविक था।
ये प्रतिरोध धीरे धीरे इस्लामी गणराज्य की सरहदों से बाहर निकला। ऐसा नहीं था कि हम इस प्रतिरोध को एक विचार और एक विचारधारा के तौर पर बाहर फैला रहे थे, जैसा कि कुछ राजनेता और अन्य लोग, दुनिया के विभिन्न स्थानों पर आपत्ति करते हैं कि आप इंक़ेलाब को निर्यात करने की सोच में क्यों हैं? हम इंक़ेलाब को एक्सपोर्ट नहीं कर रहे हैं। इंक़ेलाब एक सोच है, एक विचारधारा है, एक रास्ता है, अगर कोई राष्ट्र इसे पसंद करने लगे तो वह अपने आप इसे अपना लेगा।
इमाम ख़ुमैनी ने प्रतिरोध का रास्ता अपनाया। अहम बात यह है कि उन्होंने उत्तेजित हो कर यह रास्ता नहीं चुना, जज़्बात और भावनाओं में बहकर इस रास्ते का चयन नहीं किया।
ज़ुल्म व अत्याचार पर हर प्रतिष्ठित व आज़ाद राष्ट्र की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है प्रतिरोध। इसके लिए किसी और वजह की ज़रूरत नहीं है। जो राष्ट्र अपनी प्रतिष्ठा को, अपनी पहचान को, अपनी इंसानियत को ख़ास मूल्य और सम्मान की नज़र से देखता है, अगर वह महसूस करे कि उस पर कोई चीज़ थोपी जा रही है तो वह ज़रूर प्रतिरोध करता है।
प्रतिरोध की दूसरी अहम बात यह है कि प्रतिरोध की स्थिति में दुश्मन पीछे हटने पर मजबूर हो जाता है, हथियार डाल देने की स्थिति में ऐसा नहीं होता। जब दुश्मन आपसे ज़बरदस्ती करे और आप एक क़दम पीछे हट जाएं तो वह आगे आ जाएगा, इसमें कोई शक नहीं है। उसको आगे बढ़ने से रोकने का रास्ता यह है कि आप अपनी जगह डट जाइये! दुश्मन की ग़लत मांगों, ग़ुंडा टैक्स वसूली और ज़ोर-ज़बरदस्ती के मुक़ाबले में प्रतिरोध, उसकी बढ़त को रोकने का प्रभावी तरीक़ा है। इस लिए प्रतिरोध का तरीक़ा सबसे अच्छा तरीक़ा है।
प्रतिरोध का तीसरा पहलू वो चीज़ है जिसे मैंने एक दो साल पहले यहीं पर बयान किया था और वो ये है प्रतिरोध की एक क़ीमत चुकानी होती है, ऐसा नहीं है कि इसकी कोई क़ीमत न चुकानी पड़े लेकिन दुश्मन के सामने हथियार डाल देने की जो क़ीमत है, वह प्रतिरोध की स्थिति में चुकाई जाने वाली क़ीमत से कहीं ज़्यादा है। जब आप दुश्मन के सामने हथियार डाल देते हैं तो आपको एक क़ीमत चुकानी पड़ती है। आज सऊदी सरकार पैसे देती है, डॉलर चुकाती है, अमरीका के इशारे पर अपनी नीति निर्धारित करती है लेकिन फिर भी उसे बेइज़्ज़ती बर्दाश्त करनी पड़ती है, उसे दूध देने वाली गाय कहा जाता है! सुलह कर लेने, हथियार डाल देन और प्रतिरोध न करने की क़ीमत, प्रतिरोध करने की क़ीमत से कई गुना ज़्यादा है। भौतिक क़ीमत भी चुकानी पड़ती है और नैतिक क़ीमत भी अदा करनी पड़ती है।
इस्लामी गणराज्य व्यवस्था में जिस प्रतिरोध की बुनियाद हमारे महान इमाम ख़ुमैनी ने रखी उसका चौथा पहलू क़ुरआन और अल्लाह का वादा है। अल्लाह ने क़ुरआने मजीद की कई आयतों में बार बार ये वादा किया है कि हक़ पर चलने वालों और हक़ का साथ देने वालों को निश्चित विजय मिलेगी। इस बात को क़ुरआन की कई आयतें बयान करती हैं। मुमकिन है कि उन्हें क़ुर्बानी देनी पड़े लेकिन इसके मुक़ाबले में निश्चित व अंतिम विजय उन्हीं को हासिल होती है वे पराजित नहीं होते। क़ुर्बानी बर्दाश्त करनी पड़ती है लेकिन नाकामी बर्दाश्त नहीं करनी पड़ती।
पांचवां बिंदु जो प्रतिरोध के संबंध में मद्देनज़र रखना चाहिए, जैसा कि इमाम ख़ुमैनी भी इसे मद्देनज़र रखते थे, हम भी इसे जानते हैं, समझते हैं और अंदाज़ा लगाते हैं, ये है कि प्रतिरोध एक मुमिकन काम है। उन लोगों की सोच के बिलकुल विपरीत जो कहते हैं और प्रचार करते हैं कि “जनाब! कोई फ़ायदा नहीं है, आप कैसे प्रतिरोध करेंगे? सामने वाला तो बहुत बड़ा ग़ुंडा है, बहुत ताक़तवर है।“ यही सबसे बड़ी भूल है, सबसे बड़ी ग़लती यही है कि कोई ये सोच ले कि दुनिया की ज़ालिम ताक़तों के मुक़ाबले में प्रतिरोध नहीं किया जा सकता, उनका मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। ये अंदाज़े की ग़लती है।
किसी भी मामले में अनुमान की ग़लती वहाँ होती है जहाँ हम उस मामले के विभिन्न कारकों और पहलुओं को नहीं देख पाते। जब एक मुक़ाबले की बात हो रही है, मोंर्चों के टकराव की बात हो रही है तो अंदाज़े की ग़लती इस लिए होती है कि हम अपने मोर्चे को अच्छी तरह नहीं पहचानते और दुश्मन के मोर्चे को भी सही तरीक़े से नहीं पहचानते। अगर हमें सही पहचान नहीं है तो अंदाज़ा लगाने में भी हमसे ज़रूर ग़लती होगी। अगर हमारे पास सही पहचान हो तो हमारे अंदाज़े अलग होंगे। मैं यही कह रहा हूं कि दुनिया की अत्याचारी ताक़तों के मुक़ाबले में प्रतिरोध के मामले में अंदाज़ा लगाएं तो ज़रूरी है कि उन ताक़तों की हक़ीक़त और हैसियत का हमें सही तरीक़े से ज्ञान हो और हम अपनी हक़ीक़तों से भी पूरी तरह अवगत हों। उन हक़ीक़तों में से एक, प्रतिरोध के मोर्चे की ताक़त है।
इमाम ख़ामेनेई